Friday, March 7, 2008

कठपुतली



एक डोर खीची तो हाथ उठा,
दोसरी खीची तो पेर,
कई सारी एक साथ खीची,
तो नाच उठी वो,
डोर ढीली की तो,
बेजान हो वो गिर पड़ी.

कठपुतली थी वो.

कभी ऊपर वाला नचाता है,
कभी हमें गिरता है,
कभी हमें रुलाता है,
कभी हमें हसता है.

और जब डोर उसके हाथ से छुटी तो,
कठपुतली को मिलती है,
एक स्वतंत्रता,
बिना मन न नाचने की,
बिना मन न हँसने की,
बिना मन न रोने की,

कठपुतली थी वो.

पर मैं तो एक इंसान हूँ,
मुझमे शक्ति है,
की डोर के टूटने पे,
मै गिरूँ नही,
बल्कि स्वतंत्र हो जाऊं,
अडिग रहने के लिए,
अपने तरह से जीने के लिए.

पर, कठपुतली थी वो
कठपुतली हूँ मैं,
कठपुतली है हम...

जब डोर खिचेगी,
तो नाचेंगे हम,
हँसेंगे हम,
रोयेंगे हम,
जीतेंगे हम,
हारेंगे हम.

कठपुतली थी वो, कठपुतली है हम...

Cheers!!

2 comments:

Padmaja Shukla said...

good one!!
sach hai kathputli to hain.. ab kisi ke under to rehna hi hai... shayad GOD is the best one :)

Ratnesh said...

sach hai.....par bhagwan ke hath ki kathputli banna manjoor hai...insaan ke hath ki kabhi nahi..CHeeRs to the LiFe...