दिल चाहता है
दिल चाहता है कि,
रात भर टिमटिमाते तारों को एक टाक देखू,
कभी ये कमबख्त पलकें धोखा दे जाती है,
और कभी मुझे नींद आ जाती है…
दिल चाहता है कि,
कि मैं कभी दौड़ कर तितली को पकड़ लूं,
रात मैं जुगनू के पीछे भागूं,
पर कभी वो उड़ जाते है,
और कभी मुझे उन्हें स्वतंत्र उड़ता देख कर ही सुख कि अनुभूति होती है.
दिल चाहता है कि,
हर कोई मुस्कराये,
दुनिया मैं हर कोई खुश रहना सीख जाये,
पर कभी मैं उन्हें समझा नही पाता,
और कभी खुद भी उदास हो जाता हूँ.
दिल चाहता है कि,
कि लोगों के दिल मैं प्यार ही प्यार भर दूं,
उन्हें सिखला दूं कि प्यार से ही मानवता बढ़ सकी है,
एक दूसरे से नफरत से, इस धारा को रक्त रंजित करके,
केवल दुःख ही बढ़ सकता है,
पर कभी वो नही सुनते,
और कभी मेरी गुहार उन तक नही पहुंचती.
दिल चाहता है कि,
हर चीज को दिल लगा कर करूं,
पर कभी दिल खुद नही लगता,
और कभी मैं दिल को नही लगाता.
दिल चाहता है कि,
अज उससे कह दूं कि वोई मेरी जिन्दगी है,
पर कभी वो नही मिलते,
और कभी उनकी ना से डर लगता है.
दिल चाहता है कि,
हर पल को कैद कर लूं,
हर बार ये पल निकल जता है हाथ से,
कभी दे जता है ये पूरानी यादें,
और कभी दे जता है ये दिल को एक नयी चाहत.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
8 comments:
sahi kakka
last para is best compilation in entire poem
vivek
sahi guru. thora shabdkosh badhao .. aur sahi ho jayega..
kaafi achcha!!!
Good One !!
good one :) asmita here...pehchana ya bhool gaye..
sahi jaa rahe ho kakke ... mast likha hai ... and as vivek says last para is the jist of the poem ...
really nice one. keep writing man. i expect much more.
hey... thanks for dropping by at my blog... hope u liked the other posts too...
and some nice poetry you have here man!
i've put a few of mine at poeticextremes.blogspot.com
Post a Comment