Thursday, December 13, 2007

भ्रम

फिर वही सुबह,
फिर वही दफ्तर,
फिर वही काम,
फिर वही शाम,
फिर किसी को परेशां देखकर न रुकना,
फिर हर बाट में चीखना चिल्लाना,
फिर उसी रास्ते से घर को जाना
फिर वोहो रात,

कुछ नया होता क्यों नही,
कुछ उत्साह आता ही नही,
क्यों दिल गुनगुनाता नही,
क्यों ये जीवन नीरस हो गया है.

कुछ नया होना ही चाहिऐ,
व्याकुल मस्तिष्क इसी उदेध बुन में,
चला गया निद्रा के आगोश में,

अगली सुबह लगा कुछ नया है,
चाय भी आज कड़क है,
दफ्तर जाने की जल्दी है,
अरे आज उसी काम मैं जान है,
लगता है की अज कुछ नया किया,
अज नये रस्ते से घर आया,
अरे अज तो मैंने किसी की मदद भी की,
मन अज व्याकुल नही,
सब कुछ नया लगता है..

है ये कैसा चमत्कार,
क्या हुआ है मुझे आज,

ये चमत्कार नही,
भ्रम का नया चेहरा है,
जी रहे है है भ्रम में,
इस मृग मरीचिका से,
कोई नही बच पाया,

पर भ्रम मैं भी,
चीजें कैसे गलत हो जाती है,
मन का डर बाहर निकल आता है,
जो सारी चीजों को व्यर्थ बनता है,
पर अगले ही पल, शक्ति का संचार होता है,
और डर भाग जाता है,
फिर सब मनोरम लगता है,

चुनौती तो यही है की,
हमें हर डर को खीच कर निकालना है,
उसे अपनी ही शक्ति से दूर भागना है,
तभी निर्भय होकर,
हम भ्रम को तोड़ सकेंगे,
असत्य से सत्य की ओर जा सकेंगे,
अन्धकार को प्रकाश में बदल सकेंगे,
इस मृग मरीचिका से बाहर निकल सकेंगे..

1 comment:

Anonymous said...

चुनौती तो यही है की,
हमें हर डर को खीच कर निकालना है,
उसे अपनी ही शक्ति से दूर भागना है,
तभी निर्भय होकर,
हम भ्रम को तोड़ सकेंगे,
असत्य से सत्य की ओर जा सकेंगे,
अन्धकार को प्रकाश में बदल सकेंगे,
इस मृग मरीचिका से बाहर निकल सकेंगे..


beautiful compilation

regards
Vivek